फिराक गोरखपुरी : एक विश्‍वविद्यालय से कम नहीं, पेश हैं कुछ उनसे जुड़ी यादें

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जब नेहरूजी ने फ़िराक़ से पूछा- ‘अब भी नाराज़ हो..’

किस्सा मुम्बई का है। वहाँ फ़िराक़ के कई दोस्त थे। उनमें से एक थीं मशहूर अभिनेत्री नादिरा। उस दिन फ़िराक़ सुबह से ही शराब पीने लगे थे और थोड़ी देर में उनकी ज़ुबान खुरदरी हो चली थी। उनके मुँह से जो शब्द निकल रहे थे वो नादिरा को परेशान करने लगे थे। जब वो फ़िराक़ के इस मूड को हैण्डिल नहीं कर पाईं तो उन्होंने इस्मत चुग़ताई को मदद के लिए फ़ोन किया।
जैसे ही इस्मत नादिरा के फ़्लैट में घुसीं, फ़िराक़ की आँखों में चमक आ गई और बैठते ही वो उर्दू साहित्य की बारीकियों पर चर्चा करने लगे। नादिरा ने थोड़ी देर तक उनकी तरफ़ देखा और फिर बोलीं, “फ़िराक़ साहब आपकी गालियाँ क्या सिर्फ़ मेरे लिए थीं?”
फ़िराक़ ने जवाब दिया, “अब तुम्हें मालूम हो चुका होगा कि गालियों को कविता में किस तरह बदला जाता है.” इस्मत ने बाद में अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘ऐसा नहीं था कि नादिरा में बौद्धिक बहस करने की क्षमता नहीं थी. वो असल में जल्दी नर्वस हो गईं थीं.’ फ़िराक़ की शख़्सियत में इतनी पर्तें थी, इतने आयाम थे, इतना विरोधाभास था और इतनी जटिलता थी कि वो हमेशा से अध्येताओं के लिए एक पहेली बन कर रहे हैं. फ़िराक़ बोहेमियन थे… आदि विद्रोही, धारा के विरुद्ध तैरने वाले बाग़ी. अदा अदा में अनोखापन, देखने-बैठने-उठने-चलने और अलग अंदाज़े-गुफ़्तगू, बेतहाशा गुस्सा, अपार करुणा, शर्मनाक कंजूसी और बरबाद कर देने वाली दरियादिली, फ़कीरी और शाहाना ज़िंदगी का अद्भुत समन्वय… ये थे रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी.
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जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर एमेरिटस शमीम हनफ़ी और फ़िराक़ गोरखपुरी का करीब दस सालों का साथ रहा है. हनफ़ी कहते हैं, “साहित्य की बात एक तरफ़, मैंने फ़िराक़ से बेहतर कनवरसेशनलिस्ट- बात करने वाला अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा. मैंने उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी साहित्य के चोटी के लोगों से बात की है लेकिन फ़िराक़ जैसा किसी को भी नहीं पाया. इस संदर्भ में मुझे सिर्फ़ एक शख़्स याद आता डाक्टर सेमुअल जॉन्सन जिन्हें बॉसवेल मिल गया था, जिसने उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड की। अगर फ़िराक़ के साथ भी कोई बॉसवेल होता और उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड करता तो उनकी वैचारिक उड़ान और ज़रख़ेज़ी का नमूना लोगों को भी मिल पाता। “शुरू में फ़िराक़ को उर्दू साहित्य जगत में अपने आप को स्थापित करवा पाने में बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी. शमीम हनफ़ी कहते हैं, “शुरू में फ़िराक़ साहब की शायरी के हुस्न को लोगों ने उस तरह नहीं पहचाना क्योंकि वो रवायत से थोड़ी हटी हुई शायरी थी. उसमें एक तरह की नाहमवारी मिलती है. उनकी शायरी का बयान बहुत हमवार नहीं है लेकिन यही खुरदुरापन नए लोगों को अपील करता है.” वो आगे कहते हैं, “जब उर्दू में नई ग़ज़ल शुरू हुई तो उन्होंने फ़िराक़ की तरफ़ ज़्यादा देखा, असग़र, हसरत, जिगर और फ़ानी के मुकाबले में… नई ग़ज़ल के जो सबसे बड़े शायर हमारे यहाँ कहे जाते हैं वो है नासिर काज़मी। वो फ़िराक़ साहब के बहुत क़ायल थे। उनको लोगों ने देर से स्वीकारा लेकिन उनके मुकाबले में फ़िराक़ साहब को जल्द ही स्वीकार लिया। “दिलचस्प बात ये थी कि फ़िराक़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाया करते थे. हिंदी साहित्यकारों से उनकी शिकायत ये थी कि वो ऐसे शब्द क्यों लिखते हैं जो सिर्फ़ कोशों में दफ़न रहते हैं? उनकी भाषा जनमानस के करीब क्यों नहीं रहती?
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जानेमाने हिंदी साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी को भी फ़िराक़ को नज़दीक से जानने का मौका मिला था। त्रिपाठी याद करते हैं, “मैंने उनको पहली बार तब देखा जब वो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की क्लास ले रहे थे. ज़्यादतर वो बी०ए० की क्लास को पढ़ाते थे. देव साहब उनको एम- ए० की क्लास पढ़ाने नहीं देते थे क्योंकि वो क्लास में शायरी की बातें ज़्यादा करते थे, कोर्स कम पढ़ाते थे।” वो बताते हैं, “मैंने देखा कि वो सिगरेट पी रहे थे और घूम घूम कर विद्यार्थियों से कुछ बातें कर रहे थे. कुछ समय बाद मैं उनसे मिलने उनके घर गया. उन्होंने मुझसे पूछा कहाँ से आए हो? मैंने कहा बनारस से आया हूँ. उन्होंने पूछा क्या पढ़ते हो? जैसे ही मैंने कहा मैं हिंदी पढ़ता हूँ, फ़िराक़ साहब बोले हिन्दी में कुछ सरल सुगम कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाइए. मैंने सुनाई लेकिन उन्होंने मेरी खिंचाई शुरू कर दी।”
“उस पहली मुलाकात में ही उन्होंने हिन्दी वालों को बहुत गालियाँ दीं. कुछ दिनों बाद जब मैं उनसे फिर मिलने गया तो उन्होंने हिन्दी वालों के लिए ऐसा विशेषण इस्तेमाल किया जिसे मैं यहाँ नहीं कहना चाहता. मैंने उनसे कहा कि आप सब को गाली दीजिए लेकिन मेरे गुरु आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी को गाली मत दीजिए. लेकिन तब भी वो नहीं माने.” “मैंने फ़िराक़ साहब से कहा कि मैं आपको ढेला मार कर भागूँगा और आप मुझे पकड़ नहीं पाएँगे। फ़िराक़ साहब ये सुनते ही मेरे पास आए, मेरे कन्धे पर हाथ रखा और बहुत ज़ोर से हँसे और बोले — पंडितजी, तुम तो असली हिन्दी वाले मालूम पड़ते हो.” हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों के बारे में फ़िराक़ साहब कहा करते थे कि उनके एक पेज पर दस बार भिन्न भिन्न शब्द का प्रयोग ऐसा लगता है जैसे एक साथ बहुत सी मक्खियाँ भिनभिना रही हों
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हिंदी साहित्यकारों में सिर्फ़ निराला से उनकी बनती थी। फ़िराक़ के अज़ीज़ दोस्त और साहित्य सचिव रहे रमेश चंद्र द्विवेदी अपनी किताब ‘मैंने फ़िराक़ को देखा था’ में लिखते हैं, “फ़िराक़ की पत्नी मुझे बताती थीं, फ़िराक़ और निराला में दोस्ती तो थी, लेकिन जम कर लड़ाई भी होती थी. बाबूजी नौकर से निराला के लिए रिक्शा मंगवाते और गेट तक उन्हें छोड़ने जाते. वो रिक्शेवाले को पैसा पहले ही दे दिया करते थे.” “बाबूजी खुद ही निराला से कविता सुनाने के लिए ज़िद करते और जब निरालाजी कविता पढ़ना बंद कर देते तो बाबूजी उनकी कविता में ख़ामियों का बयान करते. निरालाजी पहले तो सुनते और फिर जब उनसे न रहा जाता तो बरस पड़ते और फिर तो छतें हिलने लगतीं.” “एक बात और मज़ेदार है. कभी कभी निरालाजी अंग्रेज़ी में लड़ाई लड़ते मगर फ़िराक़ उनका जवाब हिंदी में देते थे. जब भी निराला आते नौकर को भेज कर एक बोतल महुए की शराब मंगाई जाती. निरालाजी के लिए कोरमा, कबाब, भुना हुआ गोश्त, पुलाव, मिठाइयाँ सब कुछ रहता. फ़िराक़ अंदर आकर बार बार चिल्ला जाते- ख़बरदार कुछ कम न पड़ने पाए.”
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फ़िराक़ की याद्दाश्त कंप्यूटर की तरह थी. बड़ी बड़ी आँखें थीं उनकी. वो बेहद मूडी किस्म के इंसान थे. शमीम हनफ़ी याद करते हैं, “फ़िराक़ से ज़्यादा मुँहफट मैंने किसी को नहीं देखा. आंखे गड़ाकर जब वो कोई बात बोलते थे तो आपकी आखें ख़ुद ब ख़ुद झुक जाती थीं. जब वो अपनी गरजदार आवाज़ में अपने नौकर को पुकारते थे तो कटरे में लक्ष्मी टाकीज़ के पास उनकी आवाज़ सुनाई देती थी.” फ़िराक़ जवाहरलाल नेहरू की बहुत इज़्ज़त करते थे. 1948 में जब नेहरू इलाहाबाद आए तो उन्होंने फ़िराक़ को मिलने के लिए आनंद भवन बुलवा भेजा. फ़िराक़ के भांजे अजयमान सिंह, उन पर लिखी अपनी किताब, “फ़िराक़ गोरखपुरी-ए पोएट ऑफ़ पेन एंड एक्सटेसी’ में लिखते हैं, “फ़िराक़ को उस समय बहुत बेइज़्ज़ती महसूस हुई जब रिसेप्शनिस्ट ने उनसे कहा कि आप कुर्सी पर बैठें और अपना नाम पर्ची पर लिख दें. ये वही घर था जहाँ उन्होंने चार सालों तक नेहरू के साथ काम किया था. इस बार वो पहली बार प्रधानमंत्री के तौर पर इलाहाबाद आए थे और उन्हें उनसे मिलने के लिए इंतज़ार करना पड़ रहा था.” “फ़िराक़ ने पर्ची पर लिखा रघुपति सहाए. रिसेप्शनिस्ट ने दूसरी स्लिप पर आर सहाए लिख कर उसे अंदर भिजवा दिया. पंद्रह मिनट इंतज़ार करने के बाद फ़िराक़ के सब्र का बाँध टूट गया और वो रिसेप्शेनिस्ट पर चिल्लाए. मैं यहाँ जवाहरलाल के निमंत्रण पर आया हूँ. आज तक मुझे इस घर में रुकने से नहीं रोका गया है. बहरहाल जब नेहरू को फुर्सत मिले तो उन्हें बता दीजिएगा… मैं 8/4 बैंक रोड पर रहता हूँ.” “ये कह कर वो जैसे ही उठने को हुए नेहरू ने उनकी आवाज़ पहचान ली. वो बाहर आ कर बोले, रघुपति तुम यहाँ क्यों खड़े हो? अंदर क्यों नहीं आ गए. फ़िराक़ ने कहा, घंटों पहले मेरे नाम की स्लिप आपके पास भेजी गई थी. नेहरू ने कहा, पिछले तीस सालों से मैं तुम्हें रघुपति के नाम से जानता हूँ. आर सहाए से मैं कैसे समझता कि ये तुम हो? अंदर आकर फ़िराक़ नेहरू के स्नेह से बहुत अभिभूत हुए और पुराने दिनों को याद करने लगे. लेकिन एकदम से वो चुप हो गए. नेहरू ने पूछा, तुम अभी भी नाराज़ हो? फ़िराक़ , मुस्कराए और शेर से जवाब दिया- “तुम मुख़ातिब भी हो, क़रीब भी हो तुमको देखें कि तुम से बात करें”
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इसी तरह नेहरू एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में भाषण दे रहे थे. रमेश चंद्र द्विवेदी जोकि वहाँ मौजूद थे लिखते हैं, “पंडितजी अपने भाषणों में अक्सर विश्व इतिहास की घटनाओं का ज़िक्र कर ही बैठते थे. भाषण जैसे ही पूरा हुआ मशहूर इतिहासकार डाक्टर ईश्वरी प्रसाद उठ खड़े हुए और पंडितजी की भूल बताते हुए कहने लगे कि फ़लाँ वाकया इस सन में नहीं उस सन में हुआ था. फ़िराक़ ने भी रहा नहीं गया. वो खड़े हो कर अपनी भरपूर आवाज़ में चीख़ पड़े, “सिट डाउन ईश्वरी, यू आर ए क्रैमर ऑफ़ हिस्ट्री एंड ही इज़ ए क्रियेटर ऑफ़ हिस्ट्री.” फ़िराक़ गोरखपुरी अक्सर इलाहाबाद के कॉफ़ी हाउस में बैठा करते थे. शमीम हनफ़ी याद करते हैं, “वो दोपहरे एक बजे के करीब काफ़ी हाउस पहुंचते थे. उनके घुसते ही लोग अपनी कुर्सियाँ खींच कर उनकी मेज़ के पास ले आते थे. फिर दुनिया के हर मौज़ू पर फ़िराक़ अपने विचार रखते थे. उस ज़माने में इलाहाबाद का काफ़ी हाउस बुद्धिजीवियों का गढ़ होता था. वहाँ पर कभी कभी फ़िराक़ बातचीत करते करते लड़ भी बैठते थे. लेकिन बहुत से लोग तो सिर्फ़ उन्हें सुनने काफ़ी हाउस जाया करते थे.”
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एक बार फ़िराक़ के साथ एक मज़ेदार घटना हुई जो बताती है कि वो कठोर होने के साथ साथ कितने विनम्र भी हो सकते थे. अजयमान सिंह लिखते हैं, “एक बार जब फ़िराक़ दिल्ली गए तो सेना के एक रिटायर्ड अधिकारी कर्नल ख़ाँ के यहाँ ठहरे. कुछ सालों बाद वही कर्नल उनके इलाहाबाद वाले घर पर तशरीफ़ लाए. फ़िराक़ उन्हें पहचान नहीं पाए. जब कर्नल ने उन्हें बताया कि वो दिल्ली से आए हैं तो फ़िराक़ ने उनसे पूछा क्या आप वहाँ किसी कर्नल ख़ाँ को जानते हैं?” “कर्नल ने कहा मैं वहीं शख़्स हूँ जिसके साथ आप एक हफ़्ते दिल्ली में ठहरे थे. फ़िराक़ ने उनसे कहा, आप दरवाज़े के पास पड़ी चप्पल उठाइए. हतप्रभ कर्नल ने चप्पल उठा ली और पूछा मैं इसका क्या करूँ? फ़िराक़ ने उनके सामने अपना सिर झुकाया और कहा, मेरी गुस्ताख़ी के लिए मेरे सिर पर ये चप्पलें आप तब तक मारिए जब तक आप थक न जाएं. मैं इतना अभद्र कैसे हो सकता हूँ कि आपकी मेहमान नवाज़ी भूल जाऊँ!”

कुमार रोहित के फेसबुक वॉल से साभार

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