बुन्‍देलखण्‍ड में पा सकते हैं हिमांचल का सा अहसास

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झांसी/ललितपुर। बालाबेहट किला उ0प्र0 के बुंदेलखण्ड क्षेत्र के जिला ललितपुर मे स्थित है। ललितपुर से यह पाली रोड पर 48किमी दूरी पर स्थित है। बालाबेहट गांव पूरा ही एक उंचे पठार पर बसा है, जहां जाने के लिए घुमावदार पहाडीनुमा रास्ता है। कहा जाता है कि मध्यकाल में यह गोंड राज्य का हिस्सा था। गोंड राजाओं ने इस गांव को बसाया था और यहां किले का निर्माण करवाया। किले के साथ-साथ कई बाबलियों और कुओं को भी बनबाया गया। गोड राजा अपने नगर के नाम के बाद ‘बेहट‘ शब्द जोडते थे जिसका तात्पर्य नगर या पुर से ही था। कालांतर में गोंड राजाओं के द्वारा निर्मित यह किला क्षतिग्रस्त हो गया। बुंदेलों के समय में इस ओर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया गया। जब इस क्षेत्र में मराठा प्रभावी हुए तो मराठों ने इस किले को सैनिक छावनी के रूप में विकसित करने के लिए सुरक्षित स्थान माना।
इतिहासविद डॉ. चित्रगुप्‍त श्रीवास्‍तव बताते है कि बुंदेलखण्ड के महाराजा छत्रसाल ने मराठा पेशवा बाजीराव को एक सैनिक सहायता के बदले अपना पुत्र माना और अपने राज्य का एक तिहाई हिस्सा पेशवा को सौंप दिया। उस दौरान यह क्षेत्र बुंदेलों से मराठों के पास आ गया। मराठा पेशवा ने इस गांव को दुबारा बसाया। मराठा सरदार गंगाधर ने नष्ट हाने की कगार पर पहुंच चुके इस किले का जीर्णाेद्धार करवाया। प्राचीन किले के अवशेषों को लेकर एक नये किले का रूप दे दिया। 1857 की क्रांति के समय क्रांतिकारियों के लिए यह किला गुप्त मंत्रणा के लिए सुरक्षित स्थान था। इस क्षेत्र के क्रांतिकारियों के नेता राजा मर्दन सिंह ने यहां अपना सैनिक अडडा बनाया और यहीं से सैनिकों को क्रांंति के लिए तैयार करने लगे। 23 जून 1857 को अंग्रेज अधिकारी गोलीन ने क्रांतिकारियों को शिकस्त देकर बालाबेहट के इस किले पर अधिकार कर लिया। लेकिन उसे इस किले से जल्द ही भागना पडा क्योंकि उसके सैनिक क्रांतिकारियों के साथ मिल गए। asiatimes.in अन्य क्रांतिकारियों तात्या टोपे, रावसाहव और नवाब आभा पानी के यहां छिपने के बारे में यहां के लोगों में चर्चा रहती है। इसके अतिरिक्त एक विद्रोही मुगल वंशज फिरोजशाह के गदर के दौरान इस किले में रूकने की जानकारी मिलती है। विद्रोह को दबाने के दौरान अंग्रेजी सेना ने इस किले को बुरी तरह तहस नहस किया। मराठा प्रभुत्व के समय इस क्षेत्र में मारवाडी और मराठी व्यापारी भी पहुंचे ओर यहां नमक, मसाले आदि का व्यापार यहां जमाया। उन्‍होंने बताया कि कुछ मराठी जातियां तो यहां अभी तक बसीं हैं। मराठी शासन के दौरान महाराष्ट्र की एक जाति वसुदेवा भी यहां ओर बस गयी जो काठ के वादक यंत्र बजाकर अपनी कला के प्रदर्शन से रोजी रोटी कमाती थी। आज भी कुछ परिवार बंजारा और वसुदेवा यहां बसे हैं।


वर्तमान में बालाबेहट का किला उ0प्र0 राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक है। विभाग ने यहां काफी जीर्णोद्धार करवाया। किला परिसर में प्रवेश के लिए पहले एक विशाल दरवाजा था। जो 1857 में ध्वस्त हो गया था। प्रवेश के लिए एक अन्य दरवाजे का उपयोग होता है जो अपेक्षाकृृत छोटा है। किले के अन्दर प्रवेश करने पर बडा सा मैदान और चबूतरे दिखायी देते हैं। एक चबूतरे पर छोटा सा मंदिर है जिसमें किसी देवता की मूर्ति नहीं है। किला परिसर में रानी महल नाम से एक भवन है। जिसमें गर्मियों केे समय में बैठने पर आधुनिक एअर कंडीशन से भी सुखद एहसास होता है। एक अन्य मंदिर है जो ग्रामीणों की आस्था का केन्द्र है। asiatimes.in डा. चित्रगुुुुप्‍त बताते हैं कि इसी मंदिर के पास एक जलस्रोत है जो कभी प्राकृृतिक झरना था, जिसे बाद में कुऐं का रूप दे दिया गया। इसमें पानी बहुत मीठा और ठंडा है, इतनी उचाई पर इस पठार पर इस प्रकार के जल स्रोत प्राप्त होना नायाब बात है। यहां बारिश की स्थिति भी कुछ मानसून पर निर्भर है। यहां बारिश जून माह से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक संभावित रहती है। कभी कभार दिसम्बर-जनवरी में भी मेघ अपना प्रभाव दिखा देते हैं। और इस मौसम में तो ओले बरसाने से भी नहीं चूकते है। लेकिन जब मेघों की नाराजगी होती है तो कई बार तीन चार सालों तक बारिश को तरसा देते हैं। मौसम के इस व्यवहार के कारण यहां गर्मियों में भीषण गर्मी और सर्दियों में कड़ाके की सर्दी पडती है। पानी कहीं पर्याप्‍त मात्रा में तो कहीं जल श्रोतों पर लम्बी लाईन लग जाती है।
किला परिसर में एक प्राचीन बावली है जिसका निर्माण संभवतः गोंड राजाओं ने करवाया था। इस बाबली को चारों तरफ से छोटी कोठरियों से सजाया गया था। जिसमें अधिकांश अब नष्ट हो गयीं हैं। इन कोठरियों से सामने की ओर सीढियां बनीं हुईं थीं। ये कोठरियां दो मंजिला थीं और प्रत्येक कोठरी नीचे सीढी से जुडी थी। सबसे उपर की मंजिल की छत पर घुमावदार सीढियां थीं जो नीचे बाबली में जाकर मिलतीं थीं। जनश्रुति के अनुसार इस बाबली से एक सुरंग भी निकलती थी जो कहीं जाकर मिलती थी। कहते हैं कि गहराई के मामले में आज भी बाबली की थाह लेना कठिन है। इतनी उंचाई पर और पठारी क्षेत्र होने के बावजूद बाबली में पूरे वर्ष पानी रहता है। आसपास के ग्रामीण इस पानी का प्रयोग सिंचाई के लिए कर लेते थे। बाबली का निर्माण स्थानीय पठारी पत्थरों से किया गया है। इस पठारी क्षेत्र में पानी के इन जल स्रोतों का मिलना तत्कालीन जल प्रबंधन व्यवस्था पर प्रकाश डालता है। asiatimes.in पठारी और पथरीला क्षेत्र होने के कारण गर्मियों में पानी की कमी हो जाना स्वाभाविक है, इसके अतिरिक्त पूरा बालाबेहट क्षेत्र एक पहाडी पर बसा है जिस कारण बरसात का पानी एकत्रित करना भी कठिन काम है। ऐसी विषम परिस्थितियों में इन जल स्रोतों का निर्माण तत्कालीन शिल्प व्यवस्था कोे प्रशंसित करने के लिए पर्याप्त है।
किले के आसपास काफी संख्या में सती छतरियां हैं। जिनमें से कई अब जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं। किले की छत पर पहुंचने पर कई किलोमीटर तक प्राकृतिक नजारा देखने को मिलता है। asiatimes.in पर्यटक जब यहां पहुंचते हैं तो खूबसूरत प्राकृतिक वातावरण से प्रसन्न हो जाते हैं। विशेषकर अक्टूबर माह से फरवरी माह तक यहां का वातावरण हिमांचल के पहाडी पर्यटक स्थलों सरीखी खूबसूरती यहां मिलती है। यहां के पठार पर वनस्पतियों और जीव जंतुओं की विभिन्न प्रकार की किस्में देखने को मिलतीं हैं। यहां तक पहुंचने के लिए बस और प्राइवेट टैक्सियांे की व्यवस्था है। ललितपूर रेलवे स्टेशन से 48 किमी की दूरी पर वाया पाली होकर यहां जाया जा सकता है।

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