अष्‍ट धातुओं से आते हैं हमारे जीवन में विभिन्‍न बदलाव

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इस बारे में जानकारी दे रहे हैं मुम्‍बई के ज्‍योतिषविद वैभव डेकाटे। एशिया टाईम्‍स पर आप पहले भी जानकारी दे चुके हैं। इस बार अष्‍ट धातुओं के बारे में जानकारी दे रहे हैं, जोकि लोगों के जीवन में काफी काम आएगी। आपसे अनुरोध है हमारे इन प्रयासों के बारे में फीड बैक अवश्‍य देते रहें, जिससे आपके पढ़ने लायक महत्‍वपूर्ण जानकारी आप तक पहुंचती रहे। साथ ही उस जानकारी से आप लाभांवित होते रहें।

“वैदिक_ज्योतिष और अष्ट_धातुओं का विज्ञान”


➡ग्रहों की तरह धातुओं की भी अपनी एक प्रकृति होती हैं। प्रत्येक धातु से एक विशेष धारा, ऊर्जा और तरंगे प्रवाहित होती है।
प्रत्येक ग्रह किसी ना किसी धातु से जुड़ा हे या उसका प्रतिनिधित्व देखा गया हैं। हमारी पुरातन सभ्यता में जिन आठ धातुओं का वृहद वर्णन मिलता है वो है:-

1. “सोने” का प्रतिनिधित्व “गुरुदेव” करते हैं। जो लोग स्वयं को कम आंकते हो या मन में ‘हीनभावना’ घर कर चुकी हो, उन्हें तर्जनी अंगुली में सोने की अंगूठी धारण करनी चाहिये। सोने की बालियां या झुमके पहनने से स्त्रियों में स्त्री रोग, मासिक धर्म संबंधी अनियमितता, कान के रोग, हिस्टीरिया, डिप्रेशन में लाभ होता है। ये बात भी हमारे ऋषि-मुनियों ने कई वर्षों पहले ही बता दी थी। विश्व में सबसे अधिक खरा सोना सिर्फ भारत में निकलता है। 20 से 22 कैरट का जबकि अमेरिका या यूरोप में महज 14 कैरट के आसपास ही सोना पाया जाता हैं।

2. “चाँदी” चंद्रमा और शुक्र से जुड़ी धातु है। इसकी पायल पहनने से पीठ, एड़ी व घुटनों के दर्द, रक्तशुद्धि, मूत्ररोग, हिस्टीरिया आदि रोगों से राहत मिलती है। यदि जातक चंद्र पीड़ित है या मानसिक कष्ट, कफ, फेफड़े का रोग, तन से परेशान हो तो नाक में चांदी का छल्ला डालना लाभ देता है। जो जातक मूत्र रोग से पीड़ित हो, वे रेशम का सफेद धागा या चांदी का कड़ा बाएं पैर के अंगूठे में बांधें तो लाभ मिलेगा। जिन स्त्रियों के स्नायु तंत्र, गला व कंठ संबंधी रोग हो, वे हाथ के अंगूठे में छल्ला पहनें तो शीघ्र लाभ मिलने लगता है।

3. “ताँबे” को सूर्य व मंगल दोनों से जुड़ा माना जाता है इसलिए तांबे की अंगूठी अनामिका, सूर्य की अंगुली में पहनना चाहिए, इससे समाज में आपका प्रभाव बढ़ता है। घर-परिवार में मान-सम्मान बढ़ता हैं। तांबे के अन्य स्वास्थ्यवर्धक फायदे:-खून की सफाई, मानसिक तनाव में कमी, नाखून-त्वचा रोगों से मुक्ति, शरीर का नियंत्रित तापमान, प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत, हड्डियों का दर्द कम, स्वस्थ ह्रदय, हीमोग्लोबिन वृद्धि में सहायक, एंटी-ऑक्सीडेंट आदि।

4. “राँगा” शुक्र और इंद्रदेव से जुड़ी धातु हैं, जो रंग-रूप निखार के रूप में पुराने जमाने में प्रयोग होती रहती हैं। मूत्र संबंधी कोई परेशानी हो या आपको मोटापा हो और वजन कम करना हो तो राँगा की अँगूठी आपको अपनी मध्यमा ऊँगली में धारण करना चाहिये। मित्रों, प्रत्येक व्यक्ति की वात्त, पित्त और कफ की प्रवृत्ति अलग-अलग होती है। सो धातुएँ भी उनके अनुसार उनको फल देने में अपना समय लेती हैं।

5. “लोहा” या “काले घोड़े की नाल” की अंगूठी जो मध्यमा अंगुली में पहनता है तो ऐसे जातक को वात्त और पैर के रोग, नजर, तांत्रिक अभिकर्म में लाभ मिलता है। लोहे के पात्र में सरसों के तेल का छायादान सर्वश्रेष्ठ माना गया हैं। शुद्ध लोहे के बर्तन में दूध उबालकर पीने से स्वास्थ्य लाभ के अतिरिक्त “चंद्र-शनि” के दोष आदि में लाभ मिलता हैं।

6. “जस्ता” (यशद) का वर्णन “जस्तारुद्रयामलतंत्र” के अंतर्गत “धातु क्रिया” ग्रंथ में विस्तारपूर्वक मिलता है। ये वायु में दूषित नहीं होता है सो सारे संसार को जस्ते की मदद से लोहे का “प्रतिरक्षण” (जंग ना लगने देना) का ज्ञान देना हमारे ऋषि-मुनियों की ही देन हैं।

7. आयुर्वेद में “सीसा” सप्त धातुओं में है और अत्यंत जहरीली होने के बावजूद अन्य धातुओं के समान यह भी रसौषध के रूप में काम लायी जाती हैं। इसका भस्म कई रोगों में दिया जाता है। वैद्यक में सीसा आयु, वीर्य और कांति को बढ़ानेवाला, चेहरे पर “तेजस” बढ़ाने वाला, मेहनाशक, उष्ण तथा कफ को दूर करने वाला माना जाता है। सीसा दूसरी धातुओं के साथ बहुत जल्दी मिल जाता और कई प्रकार की मिश्र धातुएँ बनाने में काम आता है।

8. “पारद” को चरक संहिता में दो स्थानों पर ‘रस’ और ‘रसोत्तम’ नाम से संबोधित किया गया है। नागार्जुन द्वारा लिखित “रस रत्न समुच्चय”, “वाग्भट जी” ने औषध बनाने में और “वैद्यक” नामक ग्रंथ में पारा, कृमिनाशक और कुष्ठनाशक, नेत्रहितकारी, रसायन, मधुर आदि छह रसों से युक्त, स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, योग-वाही, शुक्रवर्धक और एक प्रकार से संपूर्ण रोगनाशक कहा गया है। तत्पश्चात् अन्य ग्रंथों में पारद की भस्मों तथा अन्य यौगिकों का प्रचुर वर्णन रहा है। पारे में मल, वह्नि, विष, नाम इत्यादि कई दोष मिले रहते हैं, इससे उसे शुद्ध करके खाना चाहिए।

इन्ही अष्टधातुओ को एक निश्चित अनुपात में मिलाकर प्राचीन काल में हिन्दू और जैन धर्मों में “प्रतिमाये” बनायी जाती थी। 2017 में नालंदा में खुदाई के दौरान भगवान विष्णु की अष्टधातु की अत्यंत प्राचीन प्रतिमा निकली थी, जिसकी कीमत 2 करोड़ के आसपास थी। यही नही मित्रों, आपने सुना होगा कि फलाने तश्कर के पास से 5 करोड़ की तो कभी 15 से 20 करोड़ की मूर्तियां जब्त की गयी, हमारी सनातन संस्कृति में जिन निश्चित अनुपात में अष्टधातुओं की मूर्ति बनाई जाती थी। उनकी “जैविक ऊर्जा” (Radioactive_Rays) कई मीलों दूर तक जाती थी। यही कारण था कि हमारी अधिकतम मूर्तियाँ इटली, लंदन और अमेरिका के म्यूज़ियम में सुनियोजित षड्यंत्र के तहत भेजी जाती रही हैं। अष्टधातु में असली महत्व पारा का ही है चूंकि ये अत्यंत जहरीला होता है सो शरीर पर अष्टधातु के ‘कड़े’ नुकसान अधिक देते है। अतः “पंचधातु” (सोना, चांदी, तांबा, पीतल और सीसा) और “त्रिधातु (सोना, चाँदी और तांबा) के कड़े/छल्ले/अँगूठी आदि अधिक प्रयोग में लाये जाते हैं, पर ये भी औने-पौने भाव में बाजार में बेचे जाते है। इनका अनुपात तक लोगो को नहीं पता होता है। बस मनलुभावन फ़ायदे गिनाकर लोग अपनी झोली भरते हैं। उम्मीद है कि ऋषि-मुनियों की सनातन संस्कृति द्वारा अष्टधातुओं की जानकारी पाकर आपका सीना गर्व से चौड़ा हो गया होगा।

नोट -: उक्‍त लेख के संदर्भ में एशिया टाईम्‍स की सम्‍पादकीय टीम कोई दावा नहीं करती है, लेकिन ज्‍योतिष शास्‍त्र के अनुसार इससे यदि आपके जीवन में कोई बदलाव आता है, तो हमको खुशी होगी।

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