सुसंस्कृत और सुशिक्षित मानव शक्ति को तैयार करें: प्रो. राजेंद्र प्रसाद

बुविवि में शिक्षा पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय गोष्ठी संपन्न

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झांसी। आज शिक्षक ऐसी सुसंस्कृत और सुशिक्षित मानव शक्ति को तैयार करें जो देश की प्रगति में प्रभावी योगदान देने में सक्षम हो। उक्‍त विचार बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के शिक्षा संस्थान के तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन समारोह में उपस्थित शिक्षकों, शोधार्थियों और विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए इलाहाबाद राज्य विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राजेंद्र प्रसाद ने व्‍यक्‍त किए।
उन्होंने कहा कि आजादी के बाद के 70 वर्षों में हमने अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया जिसकी वजह से मानव जीवन के विविध क्षेत्रों में अनेक किस्म की समस्याएं उत्पन्न हो गईं। इन समस्याओं ने भारतीय लोकतंत्र की राह में अनेक प्रकार की मुश्किलें पैदा कीं। प्रो. प्रसाद ने कहा कि वास्तव में मूल्यों को धारित करने की शक्ति लगातार घटती चली गई। ऐसे में देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीनों अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्याय पालिका तीनों से जुड़ी विभिन्न संस्थाओं का क्षरण हुआ। हालांकि हमारा देश उपनिषद काल से पारस्परिक विमर्श के लिए प्रख्यात रहा लेकिन फिर भी हम क्षरण और विचलन का शिकार हुए। वर्तमान में शिक्षा क्षेत्र और शिक्षक दोनों ही परीक्षाओं के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकारें बदलने के बाद नीतियों में बदलाव होता है। विविध बदलावों से शिक्षकों की भूमिका पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक प्रक्रिया है। उन्होंने कहा कि दुनिया के लिए विकास के लिए शांति बहुत जरूरी है। इसी अवस्था में किसी देश के लोग अपना सर्वोत्तम योगदान विकास के लिए दे सकते हैं।
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति साहित्य भूषण प्रो. सुरेंद्र दुबे ने स्वाधीनता को सदैव से अहम मूल्य माना गया है। गोस्वामी तुलसीदास के कथन पराधीन सुख सपनेहू नाही का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपनी बात को विस्तार दिया। उन्होंने कहा कि सत्य, त्याग और समता शाश्वत मूल्य रहे हैं। जबकि अहिंसा और शांति सम सामयिक मूल्य हैं। यदि कोई अहिंसा को शाश्वत मूल्य मान ले तो उसके समक्ष पराधीनता का संकट भी पैदा हो सकता है। उन्होंने कहा कि शांति के लिए युद्ध आवश्यक है। वैसे मानव मस्तिष्क में सदैव युद्ध चलता रहता है। युद्ध को हमे आपद मूल्य के रूप में स्वीकार करना पड़ता है। उन्होंने युवाओं से विज्ञान का उपयोग पूरी सावधानी करते हुए जन कल्याण में अपनी भूमिका तय करने का आह्वान किया। उन्होंने शिक्षकों का आह्वान किया कि वे विद्यार्थियों में जिज्ञासा का भाव विकसित करें। जिज्ञासा शोध और अनुसंधान का कारण बनती है। इससे नए आविष्कार की संभावना भी बलवती होती जाती हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि युवा इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्राप्त ज्ञान का उपयोग समाज की स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए करेंगे।
इससे पहले कुलसचिव सीपी तिवारी, वित्त अधिकारी धर्मपाल, डीन फैकल्टी ऑफ एजुकेशन डा. ओंकार चौरसिया, संगोष्ठी के संयोजक प्रो. प्रकाश चंद्र शुक्ल ने भी विचार रखे। डा. दीप्ति सिंह ने दो दिवसीय संगोष्ठी की गतिविधियों की रिपोर्ट पेश की। उन्होंने बताया कि संगोष्ठी में कुल 116 शोधपत्र आए। चार तकनीकी सत्रों में 80 से अधिक शोधपत्र पढ़े गए। कार्यक्रम का संचालन अनुपम व्यास और आभार प्रदर्शन आयोजन सेक्रेट्री डा. रश्मि सिंह ने किया। इस अवसर पर प्रो. एसके कटियार, डा. डीके भट्ट, डा. बालेंदु सिंह, डा. शैलजा गुप्ता, संजय कुमार दुबे, डा. सीपी पैन्यूली, उमेश शुक्ल, प्रकाश सिंह, सतीश साहनी, राजीव सेंगर, अनिल बोहरे आदि उपस्थित रहे। अतिथियों को स्मृति चिह्न भेंटकर सम्मानित किया गया।
इससे पूर्व दो तकनीकी सत्रों में अनेक विशेषज्ञों और शोधार्थियों ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए। जिला पर्यटन अधिकारी डा. चित्रगुप्त ने मध्यकालीन बुंदेलखंड में शिक्षा पद्धति पर अपना शोधपत्र पेश किया। उन्होंने कहा कि बुंदेलखंड क्षेत्र के जरायमठ, गढ़ कुंडार, देवगढ़ आदि प्राचीन शिक्षा पद्धति के अहम केंद्र रहे। इनके बारे में विस्तृत शोध जरूरी है। जयपुर की डा. अचला पारिक, महिमा वर्मा, गीतांजलि, डा. दीप्ति सिंह ने भी शोधपत्र पेश किए। डा.एसबी सिंह ने ज्ञान के अहम स्रोत संस्कृत की उपेक्षा पर चिंता जताई। उन्होंने शिक्षकों से भारतीय संस्कृति को बचाने में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने का आह्वान किया। देवरिया से आए डा. बृजेश पाण्डेय ने कहा कि यदि सभी लोग वैदिक काल के मूल्यों को ध्यान में रखते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन ठीक से करें स्थितियों में सुधार होगा।
तकनीकी सत्र का संचालन डा. बालेंदु सिंह ने किया।

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